उत्तराखण्ड ज़रा हटके

वन पंचायत संघर्ष मोर्चा ने उत्तराखंड के वन-निर्भर समुदायों के वन अधिकारों पर जनजातीय कार्य मंत्रालय की प्रतिक्रिया का किया स्वागत……..

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उत्तराखंड के वन-निर्भर समुदायों, वन पंचायत, वन गुज्जर और गोठ खत्ते के प्रतिनिधियों के एक प्रतिनिधिमंडल ने दिनांक 24/10/2024 को जनजाति कार्य मंत्रालय, भारत सरकार की निदेशक श्रीमती समिधा सिंह से उनके कार्यालय में मुलाक़ात कर, अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006, (वन अधिकार अधिनियम, 2006) में आ रही बाधाओं के संबंध में एक ज्ञापन सौंपा था। ज्ञात रहे कि वन-निर्भर समुदायों को उनके वन अधिकार पर मान्यता प्रदान करने के लिए वर्ष 2006 में केंद्रीय सरकार ने वन अधिकार अधिनियम का निर्माण किया था।

 

इस क़ानून के अंतर्गत संपूर्ण देश में अभी तक लाखों लोगों को व्यक्तिगत और सामूहिक हकों पर मान्यता मिल चुकी है। परंतु उत्तराखंड में 18 वर्ष बीत जाने के पश्चात भी इस क़ानून को लागू नहीं किया जा रहा है। पिछले एक वर्ष से वन विभाग द्वारा कई वन गांवों में लोगों को निष्कासन के आदेश दिए गए हैं। हजारों लोग इन आदेशों के करण संकट में हैं। खास तौर पर पूर्वी तराई वन प्रभाग के अंतर्गत वन विभाग द्वारा विस्थापन की ये प्रक्रिया बहुत तेजी से चलायी जा रही है। उपरोक्त समस्याओं के क्रम में वन पंचायत संघर्ष मोर्चा से जुड़े हुए इस प्रतिनिधिमंडल ने निदेशक महोदया के समुख अभी तक वन अधिकार कानून के तहत, गोठ खत्ते,

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वन गाँवों एवं वन गुज्जर बस्तियों में ग्राम स्तरीय वन अधिकार समिति के गठन ना होने तथा जिन स्थानों पर लोगों ने स्वयं से समिति का गठन कर, अपने दावे प्रस्तुत किए हैं। वहाँ पर इन दावों की सुनवाई ना होने अथवा गलत तरीके से निरस्तीकरण किए जाने पर, लिखित रूप से अपना ज्ञापन निदेशक महोदया को सौंपा। उपरोक्त ज्ञापन पर तत्काल कार्यवाही करते हुए जनजाति कार्य मंत्रालय ने मुख्य सचिव उत्तराखंड, जनजातीय कल्याण निदेशालय, उत्तराखंड सरकार। मुख्य सचिव वन विभाग, उत्तराखंड सरकार। जिला कलेक्टर-अल्मोड़ा, बागेश्वर, रुद्रप्रयाग, चमोली, चंपावत, पिथौरागढ़ और नैनीताल जिला। प्रभागीय वन अधिकारी-अल्मोड़ा, बागेश्वर, रुद्रप्रयाग, चमोली, चंपावत, पिथौरागढ़ और नैनीताल जिला।

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को चिट्ठी लिखी है तथा उपरोक्त मामले में कार्यवाही करने के निर्देश दिए हैं। जनजाति कार्य मंत्रालय द्वारा भेजी गई चिट्ठी में, विशेष रूप से वन अधिकार अधिनियम, 2006, की धारा 4 (5) को उजागर किया गया है, जिसके अनुसार यह कहा गया है की, “जैसा कि अन्यथा प्रावधान किया गया है, मान्यता और सत्यापन प्रक्रिया पूरी होने तक वन निवासी अनुसूचित जनजाति या अन्य पारंपरिक वन निवासी के किसी भी सदस्य को उसके कब्जे वाली वन भूमि से बेदखल या हटाया नहीं जाएगा। वन पंचायत संघर्ष मोर्चा जनजाति कार्य मंत्रालय द्वारा भेजे गए चिट्ठी और उनके द्वारा लिए गए फ़ैसले का स्वागत करता है

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और उम्मीद करता है वन विभाग द्वारा उत्तराखंड में लोगों को उनके जगहों से हटाने की प्रक्रिया वन अधिकार अधिनियम, 2006 के लागू होने तक रुकी रहेगी। साथ ही वन विभाग द्वारा की जा रही अवैध बेदखली की कार्रवाई की जांच करने की  मांग भी की गई। वार्ता के दौरान निदेशक समिधा सिंह ने वन विभाग द्वारा वन गुर्जरों एवं ग्रामीण पर लगाए जा जा रहे फर्जी मुकदमों की जांच करने व ज्ञापन में उठाई गई मांगों के लिए उत्तराखंड के आला अधिकारियों को पत्र लिखने का आश्वासन दिया। इस प्रतिनिधि मंडल में तरुण जोशी, गोपाल लोदियाल, मोहम्मद शफी, मोहम्मद शमशाद, नवीन फुलारा, द्विजेंद्र, मोहम्मद कासिम समेत कई अन्य लोग शामिल थे।